हमारी तेजस्विनी मातृभूमि!
यह है हमारी पवित्र भूमि भारत! देवताओं ने जिसकी महत्ता के गीत गाये है
गायन्ती देवा: किल गीतकानि धन्यास्तु ये भारत भूमि भागे ।
स्वर्गापवर्गास्पद हेतु भूते भवन्ति भूय: पुरुषा सुरत्वात् ।
(देवगण इस प्रकार गीत गाते हैं कि हम देवताओं से भी वे लोग धन्य हैं, जो स्वर्ग और अपवर्ग के लिये साधनभूत भारतभूमि में उत्पन्न हुए हैं ।) – यह भूमि जिसे महायोगी अरविन्द ने विश्व की दिव्यजननी के रूप में जीवन्त आविष्कीकरण कर प्रत्यक्ष किया – जगन्माता! आदिशक्ति! महामाया! महादुर्गा! और जिसने मूर्त रूप साकार होकर उसके दर्शन-पूजन का हमें अवसर प्रदान किया है ।
– यह भूमि, जिसकी स्तुति हमारे दार्शनिक कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने – ‘देवि भुवन मनमोहिनी’….. नील सिन्धु जल धौत चरण तल’ कह कर की है। – यह भूमि, जिसका वंदन स्वतंत्रता के उद्घोषक कवि बंकिमचन्द्र ने अपने अमर गीत ‘वन्दे मातरम्’ में किया है । जिसने सहस्त्रों युवा हृदयों को स्फूर्त कर स्वतंत्रता के हेतु आनंदपूर्वक फांसी के तख्ते पर चढ़ने की प्रेरणा दी – त्वं हि दुर्गा दश प्रहरण धारिणी ।
– यह भूमि, जिसकी पूजा हमारे सभी सन्त-महात्माओं ने मातृभूमि, धर्मभूमि, कर्मभूमि एवं पुण्य भूमि के रूप में की है, और यही वास्तव में देव- भूमि और मोक्ष भूमि है ।
– यह भूमि, जो अनंतक्ताल से हमारी प्यारी पावन भारत माता है, जिसका नाम मात्र हमारे हृदयों, को शुरू, सात्विक भक्ति की लहरों से आपूर्ण कर देता है ।
अहो, यही तो हमारी सबकी मां है – हमारी तेजस्विनी मातृभूमि!
वास्तव में ‘भारत’ नाम ही निर्देश करता है कि यह हमारी मां है । हमारी सांस्कृतिक परम्पराओं के अनुसार किसी महिला को पुकारने की सम्मान पूर्ण रीति यह है कि उसे उसके पुत्र के नाम से पुकारा जाय । किसी महिला को अमुक की पत्नी अथवा अमुक की ‘मिसेज’ कहकर पुकारना पाश्चात्य रीति है । हम कहा करते हैं – “वह रामू की मां है।” यही बात हमारी मातृभूमि भारत के नाम के विषय में भी लागू होती है । भरत हमारे ज्येष्ठ भ्राता हैं – जिनका जन्म बहुत काल पूर्ण हुआ था । वह उदार, श्रेष्ठ गुण सम्पन्न और विजयिष्णु राजा थे एवं हिन्दू पुरुषार्थ के भासमान आदर्श थे । जब किसी स्त्री के एक से अधिक पुत्र होते हैं, तब हम उसे उसकी ज्येष्ठ संतान के नाम से अथवा सबसे अधिक ख्याति प्राप्त संतान के नाम से पुकारते हैं । भरत ख्याति प्राप्त थे और यह भूमि उनकी माता कही गई है – भारत अर्थात् सभी हिन्दुओं की माता ।
हमारे सभी महत्व के धार्मिक संस्कार भूमि-पूजन से आरंभ होते हैं। यह एक प्रथा है कि प्रात: काल में जैसे ही हिन्दू निद्रा को त्यागता है, सर्व प्रथम वह पृथ्वी माता से इस बात के लिये क्षमा याचना करता है कि दिन भर वह उसे अपने पैरों से स्पर्श करने के लिये विवश हैं ।
समुद्र वसने देवि पर्वतस्तन मण्डले ।
विष्णु पत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्श क्षमस्व मे । ।
(देवि! समुद्र तुम्हारा परिधान है, पर्वत स्तन मण्डल हैं, जिनका वात्सल्य नदियों में प्रवाहित हो रहा है । हे विष्णु पत्नि, मैं तुम्हे प्रणाम करता हूं । मेरे पैरों के स्पर्श होने की धृष्ठता के लिये क्षमा करना ।)
वास्तव में यह (मातृभूमि) सदैव हमारे राष्ट्र-जीवन की मध्यवर्ती कल्पना रही है । उसने अपनी मिट्टी, हवा, जल तथा अन्यान्य विविध पदार्थों से, जो सुख और पोषण के लिये है, मां जैसा हमारा पोषण किया है । उत्तर में अलंध्य हिमालय के रूप में उसने पिता के समान हमें संरक्षित किया है । और, देश के विभिन्न हिस्सों में फैली अरावली, विन्ध्य, सह्याद्रि आदि गिरिश्रंखलाओं ने भूतकाल में स्वतंत्रता के शूर सेनानियों को रहने के लिये जगह और बचने के लिये व्यवस्था दी है । तथा धर्मभूमि, कर्मभूमि एवं मोक्ष- भूमि के रूप में उसने हमारे आध्यात्मिक गुरू का स्थान लिया है ।
इस प्रकार हमारी मातृभूमि ने एक रूप में ही माता-पिता एवं गुरू तीनों का कर्तव्य हमारे प्रति पूर्ण किया है ।