-डॉ. मन्ना लाल रावत
हमारे जीवन में त्योहारों और उत्सवों का बड़ा महत्व है और भारतीय संस्कृति को तो त्यौहार और उत्सवों की संस्कृति रूप ही जाता है। जनजाति समाज के बंधु-भगिनियों में स्वाभाविक रूप से संस्कृति के सभी पक्षों से लगाव रहा है जो हमारी एक प्रमुख पहचान भी है। इसके माध्यम से हम अपनी सांस्कृतिक मूल्यों को जीवंत बनाए रखते हैं, परंतु विगत 2-3 वर्षों से एक नई प्रवृति आई है जिसे 9 अगस्त यानि विश्व आदिवासी दिवस के रूप में मनाये जाने के रूप् में देख सकते हैं। यह आयोजन बिना ऐतिहासिक सत्यता जाने और बिना भारत के संदर्भ के होने लगा है। हद तो ये है कि इसमें कई बुद्धिजीवी भी सम्मिलित होने लगे और शासन स्तर पर कुछ लोक लुभावने नीतिगत निर्णय भी होने लगे परंतु भारत गणराज्य के रूप में इस दिन की सत्यता को जानना अत्यंत आवश्यक है क्योंकि यह प्रश्न मात्र जनजाति समाज-संस्कृति का ही नहीं है बल्कि देश की संप्रभुता और राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से भी कीमती हो जाता है।
9 अगस्त, दिवस की ऐतिहासिक सत्यता:- हमें याद है कि मध्य काल में भौगोलिक खोजों के दौरान स्पेन और पुर्तगाल के राजाओं ने कैसे अग्रणी प्रयास किए। इस दौर में कैथोलिक मिशन की आर्थिक मदद से भारतवर्ष के व्यापार मार्ग खोजने के उद्देश्य से एक नाविक कोलंबस को समुद्री मिशन पर भेजा गया जिसके द्वारा भूलवश 12 अक्टूबर, 1492 को नई दुनिया की खोज की गई। नई दुनिया कुछ और नहीं, बल्कि उत्तरी अमेरिका का पूर्वी तट था। इस काल खण्ड में पुरे अमेरिकी महाद्वीप पर मूल निवासियों का अधिपत्य था जिसमें चेरोकी, चिकासौ, चोक्ताव, मास्कोगी और सेमिनोल प्रमुख थीं। इन सभी मूलनिवासियों को कोलंबस ने इंडियन कहा। कोलंबस की खोज के बाद धीरे-धीरे यूरोपीय शक्तियों ने अमेरिका में अपना साम्राज्य फैलाने की पूरी रूपरेखा तैयार की और सबसे पहले यहां के मूल निवासियों से संघर्ष करना पडा। इस क्रम में सबसे पहला युद्ध वर्जिन्या प्रांत में पवहाटन आदिवासियों से करना पड़ा। तीन युद्ध की इस श्रंृखला में पहला युद्ध 9 अगस्त 1610 को हुआ जिसमें पवहाटन कबीले के सभी सदस्य युद्ध करते हुए मारे गए। यह युद्ध भारतीय इतिहास के संदर्भ में अंग्रेजों के विरूद्ध सन् 1757 में प्लासी के युद्ध के समान माना जाता है। इस युद्ध की जीत के साथ ही अंग्रेजों को अमेरिका के आदिवासियों को पूरी तरह से खत्म करने का रास्ता खोल दिया।
त्रासदी भरी इस यात्रा में ‘आंसुओं की रेखा‘ व ‘धर्म प्रचार की शुरुआत करने के दिवस‘ को भी जानना आवश्यक है।
इस बात के समय में लगभग 250 वर्षों में अमेरिका के मूल निवासियों का भारी रक्तपात करके भी यूरोपीय शक्तियां केवल थोड़े से भैगोलिक भूभाग पर ही अपना आधिपत्य जमा सकी थीं, तब जॉर्ज वाशिंगटन और हन्नी नॉक्स के नेतृत्व में पहला ब्रिटिश-अमेरिकी युद्ध शुरू हुआ। इस युद्ध में सफलता अमेरिका को मिली एवं पेरिस की संधि के तहत अमरीकी कॉलोनी पर अधिकार, अमेरिका को मिला परन्तु और अधिक भूभागों पर कब्जा करके उसे आपस में बांटने की भी संधि हुई इंडियन रिमूवल ऐक्ट, 1830 के तहत सभी मूलनिवासी को जोर जबरदस्ती मिसिसिपी नदी के उस पार धकेला गया। इस संघर्ष में 30,000 स्थानीय मूल निवासियों (आदिवासीजन) रास्ते में ही मर-खप गए। यह घटना श्ज्ीम जतंपस व िज्मंतेश् (आंसुओं की रेखा) कहलाती है। इस दरमियान इतनी संख्या में मूलनिवासी लोग मारे गए कि मात्र 5 प्रतिशत ही जीवित बच सके।
काल साक्षी है कि क्रूरता का भी अपना एक लम्बा इतिहास है। इसके संवाहक शक्तियां अपने पुरखों की उपलब्धियों को समृतियों रूप में जिंदा रखने की कुचेष्ठा करती है और क्रूरता के इतिहास को जश्न में भी बदलना चाहती है। 12 अक्टूबर, 1992 कोलंबस की नई दुनिया की खोज के 500 वर्ष पूरे होने पर औपनिवेशिक शक्तियों ने एक बड़ा जश्न मनाने की योजना बनाई परंतु इन उत्सवों के विरोध में ‘कोलंबस चले जाव‘ नाम से एक अभियान चलाया गया। इस अभियान को शांत करने के लिए अपराध बोध के भाव से इस दिन को अमेरिका का ‘इंडिजिनस पीपल्स डे‘ घोषित किया गया। संयुक्त राष्ट्र द्वारा विश्व मूलनिवासी दिवस भी 12 अक्टूबर को ही मनाया था, मगर अमेरिका में विरोध और ब्रिटिश-पवहाटन युद्ध में ब्रिटेन की सत्ता वर्जिन्या प्रांत में स्थापित होने के कारण वहां धर्म प्रचार की शुरुआत करने का मौका प्राप्त हुआ। वह दिन भी 9 अगस्त ही था। क्रूरता के इतिहास के इस दिन को यादगार बनाने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ में एक गुप्त षड्यंत्र के तहत 9 अगस्त को ‘मूल निवासी दिवस‘ मनाने का निर्णय लिया गया।
अब आप समझ गये होंगे कि ‘मूलनिवासी दिवस‘ इतिहास के तथ्य व मर्म क्या हैं़? वास्तव में 9 अगस्त, 1610 को अमेरिका के मूल निवासी यदि ब्रिटिश सेना से अपना पहला युद्ध नहीं हारते तो आज भी अमेरिका के मूल निवासी पुरे अमेरिकी महाद्वीप के शासक होते। उनकी सभ्यता एवं संस्कृति अक्षुण्य रहती। उनका इतिहास भी उज्जवल व समृद्ध होता। क्या मूलनिवासी समूहों को अंग्रेजों द्वारा खत्म कर दिया गया या नहीं? क्या उक्त मूलनिवासी समूह के इतिहास से हम भारतीय को कुछ सीखने की आवश्यकता नहीं है? हमें याद रखना चाहिए कि यू.एन. की वर्किंग ग्रुप की विश्व मजदूर संगठन (प्स्व्) की पहली बैठक 1989 का हवाला दिया गया है, जो 9 अगस्त की तिथि की ओर संकेत करता है। यह वास्तव में एक सफेद झूठ है।
9 अगस्त: यू.एन. के मंच से वैश्विक बाजार में भ्रामक सूचनाओं का प्रसार विश्व मजदूर संगठन (प्स्व्) मजदूर के अधिकारों के कार्य हेतु एक विश्व स्तरीय संगठन है जिसका उद्देश्य मजदूरों के अधिकारों की रक्षा करना है। इसके द्वारा 1989 में ‘राइट्स ऑफ इंडियन पीपल कन्वेंशन‘ क्रमांक 169 घोषित किया गया जिसमें ‘इंडिजिनस पीपल‘ शब्द का प्रयोग किया गया परंतु किसी परिभाषा में इसे स्पष्ट नहीं किया गया है। इसका मुख्य संबंध तत्कालीन औपनिवेशिक कॉलोनी से है, जहां बड़ी संख्या में देशज लोग रहते हैं जो वहां तब भी दूसरे दर्जे के नागरिक निवासरत थे। भारत ने इस संधि पर हस्ताक्षर नहीं किए थे क्योंकि इसका संदर्भ भारत से नहीं था।
इस संधि की विफलता को देखते हुए विश्व मजदूर संगठन (प्स्व्) द्वारा इस विषय पर और अधिक आम राय बनाने और अन्य देशों को इस हेतु शामिल करने का काम करने के उद्देश्य से एक अलग संस्था बनाकर इस घोषणापत्र को अधिक से अधिक देशों द्वारा स्वीकार कराने का मंतव्य बनाया गया। इस दिशा में ‘वर्किंग ग्रुप फॉर इंडिजिनस पीपल‘ (ॅळप्च्) का गठन किया गया। ॅळप्च् की पहली बैठक 9 अगस्त को हुई थी, इसलिए सन् 1994 में 9 अगस्त को ‘विश्व इंडिजिनस पीपल डे‘ मनाने की घोषणा संयुक्त राष्ट्र द्वारा की गई। कई देशों में इस दिन अवकाश रखा जाने लगा।
हमें याद रचाना चाहिए कि वर्किंग ग्रुप फॉर इंडिजिनस पीपल द्वारा लगभग 20 वर्षों तक विचार विमर्श के उपरांत एक घोषणा पत्र जारी किया गया जो विश्व मजदूर संगठन के 1989 की संधि क्रमांक 169 का ही विकसित/संशोधित/परिमार्जित रूप था। यू.एन. द्वारा इस विषय पर आयोजित मतदान में 13 सितम्बर, 2007 को, में भारत गणराज्य की ओर से श्री अजय मल्होत्रा ने भारत का आधिकारिक मत रखा जो हमारे संप्रभूता, नागरिकों के मूलाधिकारों के साथ ही देश के सभी निवासी देश के मूलनिवासी होने के तथ्यों को लिए हुए था।
9 अगस्त का महत्व औपनिवेशिक शक्तियां सदा ही अपने क्रूरता के इतिहास को जीवित रखने की कोशिश करती रहीं हैं। अमेरिकी मूल निवासियों की धरती पर कोलंबस द्वारा पैर रखने के दिवस 12 अक्टूबर को ‘नेशनल इंडिजिनस पीपल डे/कोलंबस डे‘ जिसे ‘थैंक्स गिविंग डे‘ के रूप में मनाया जाता है, को ही ‘विश्व इंडिजिनियस ड‘े के रूप में मनाने की कोशिश की गई थी परंतु विवाद होने की और अमेरिका सहित कई देशों में मूलनिवासियों पर यूरोपीय औपनिवेशिक शक्तियों के अमानवीय कृतियों के पुनः उजागर एवं आधुनिक जगत में प्रसारित होने के भय से इस प्रस्ताव पर सहमति नहीं बन पाइर्, परंतु 1992 में 500 वर्ष पूरे होने के अवसर को ॅळप्च् द्वारा ‘विश्व इंडिजिनियस ड‘े मनाने के प्रस्ताव को 2 वर्ष के लिए टालना पड़ा। वर्ष 1994 में ैजण् ज्मतमें ठमदमकपबजं व िजीम ब्तवेे ;म्कपजी ैजमपदद्ध थ्मंेज क्ंल यानि 9 अगस्त के दिन हुई बैठक को कई कथोलिक सदस्यों ने शुभ दिन माना, इसलिए इस दिन को ‘विश्व इंडिजिनियस ड‘े (9 अगस्त) की घोषणा की गई। विश्व भर कैथोलिक चर्च थ्मंेज क्ंल को इंडिजिनियस लोगों के मध्य बड़े ही धूमधाम से मनाने हेतु प्रोत्साहित करते हैं। एक मान्यता अनुसार इस दिन से ही अमेरिका में ईसाई धर्म प्रचार की शुरुआत हुई थी, जो क्रिसमस या अंग्रेजी नव वर्ष तक जारी रहता है।
बाबा साहब भीम राव आम्बेडकर सहित सभी ने इस बात को संविधान निर्माताओं ने अपने प्रखर बुद्धिमत्ता से स्थापित भी किया है कि भारत में सभीजन इस देश के मूल निवासी हैं परंतु यह क्या कुछ तत्वों के प्रभाव में हमारे चिंतक भी हमारे अपने इतिहास और महापुरुषों के एकत्व के विचारों के परे कहां निकल गए? इंडिजिनियस पीपल्स की अवधारणा सहित ये मनगढ़ंत बातें क्या जनजातियों के राष्ट्रीय मूल्यों, स्वतंत्रता हेतु दिये गये बलिदानों की संस्कृति की अनवरत श्रंृखला के गौरव के अनुकूल है? यह हमारा राष्टीय कर्तव्य है कि हम हमारे गणराज्य के यू. एन. में रखे गये मत दिनांक 13 सितम्बर, 2007 के अनुरूप ही चिंतन व कार्यव्यवहार रखें।
जाने कैसी हवा चली और भारतवर्ष में भोला भाला जनजाति समाज एक भेड़ चाल का हिस्सा बनकर मूलनिवासियों के पतन ऐतिहासिक दिन 9 अगस्त को, विश्व मूलनिवासी दिवस मनाने लगे; जबकि यह अमेरिकी मूल निवासियों के नरसंहार का दिन है। इस दिन पवहाटन युद्ध में पांच मूलनिवासी कबीलों के नष्ट होने का दिवस जिसे औपनिवेशिक शक्तियों ने बड़ी चतुराई से संयुक्त राष्ट्र संघ के मंचों का उपयोग करते हुए सजावटी तौर पर प्रस्तुत किया है। यह सजावटी दिवस भारतीय संप्रभुता, भारतीय गौरवशाली इतिहास और जनजाति समाज के स्वतंत्रता सैनानियों/नायकों द्वारा औपनिवेशिक शक्तियों के विरुकिये गये अपने संघर्ष और बलिदानों की सच्ची श्रद्धांजलि नहीं हो सकता। हमारा प्रश्न हमारे पूर्वजों के प्रति प्रतिबद्धता और राष्ट्रीय मूल्यों में आस्था का ही रहा है व इसी के लिए हम नतमस्तक होते हैं। साथ ही साथ विश्व समाज में अमेरिकी आदिवासियों के समुदायों को नष्ट करने वाले विदेशी तत्वों के विरुद्ध ही होना चाहिए, क्योंकि 9 अगस्त को हर वर्ष कई हजार मूलनिवासी संयुक्त राष्ट्र के मुख्यालय के बाहर अपने पुरखों के पक्ष में खडे होकर 9 अगस्त, 1610 के क्रुर युद्ध की रीति, नीति व गति के विरोध में आंदोलन करते हैं, और तो फिर हम संवेदनशील, चिंतनशील व विवेकशील मानस वाले होकर भी 9 अगस्त को उत्सव कैसे बना सकते हैं?
……) का गठन किया गया। ॅळप्च् की पहली बैठक 9 अगस्त को हुई थी, इसलिए सन् 1994 में 9 अगस्त को ‘विश्व इंडिजिनस पीपल डे‘ मनाने की घोषणा संयुक्त राष्ट्र द्वारा की गई। कई देशों में इस दिन अवकाश रखा जाने लगा।
हमें याद रचाना चाहिए कि वर्किंग ग्रुप फॉर इंडिजिनस पीपल द्वारा लगभग 20 वर्षों तक विचार विमर्श के उपरांत एक घोषणा पत्र जारी किया गया जो विश्व मजदूर संगठन के 1989 की संधि क्रमांक 169 का ही विकसित/संशोधित/परिमार्जित रूप था। यू.एन. द्वारा इस विषय पर आयोजित मतदान में 13 सितम्बर, 2007 को, में भारत गणराज्य की ओर से श्री अजय मल्होत्रा ने भारत का आधिकारिक मत रखा जो हमारे संप्रभूता, नागरिकों के मूलाधिकारों के साथ ही देश के सभी निवासी देश के मूलनिवासी होने के तथ्यों को लिए हुए था।
9 अगस्त का महत्व औपनिवेशिक शक्तियां सदा ही अपने क्रूरता के इतिहास को जीवित रखने की कोशिश करती रहीं हैं। अमेरिकी मूल निवासियों की धरती पर कोलंबस द्वारा पैर रखने के दिवस 12 अक्टूबर को ‘नेशनल इंडिजिनस पीपल डे/कोलंबस डे‘ जिसे ‘थैंक्स गिविंग डे‘ के रूप में मनाया जाता है, को ही ‘विश्व इंडिजिनियस ड‘े के रूप में मनाने की कोशिश की गई थी परंतु विवाद होने की और अमेरिका सहित कई देशों में मूलनिवासियों पर यूरोपीय औपनिवेशिक शक्तियों के अमानवीय कृतियों के पुनः उजागर एवं आधुनिक जगत में प्रसारित होने के भय से इस प्रस्ताव पर सहमति नहीं बन पाइर्, परंतु 1992 में 500 वर्ष पूरे होने के अवसर को ॅळप्च् द्वारा ‘विश्व इंडिजिनियस ड‘े मनाने के प्रस्ताव को 2 वर्ष के लिए टालना पड़ा। वर्ष 1994 में ैजण् ज्मतमें ठमदमकपबजं व िजीम ब्तवेे ;म्कपजी ैजमपदद्ध थ्मंेज क्ंल यानि 9 अगस्त के दिन हुई बैठक को कई कथोलिक सदस्यों ने शुभ दिन माना, इसलिए इस दिन को ‘विश्व इंडिजिनियस ड‘े (9 अगस्त) की घोषणा की गई। विश्व भर कैथोलिक चर्च थ्मंेज क्ंल को इंडिजिनियस लोगों के मध्य बड़े ही धूमधाम से मनाने हेतु प्रोत्साहित करते हैं। एक मान्यता अनुसार इस दिन से ही अमेरिका में ईसाई धर्म प्रचार की शुरुआत हुई थी, जो क्रिसमस या अंग्रेजी नव वर्ष तक जारी रहता है।
बाबा साहब भीम राव आम्बेडकर सहित सभी ने इस बात को संविधान निर्माताओं ने अपने प्रखर बुद्धिमत्ता से स्थापित भी किया है कि भारत में सभीजन इस देश के मूल निवासी हैं परंतु यह क्या कुछ तत्वों के प्रभाव में हमारे चिंतक भी हमारे अपने इतिहास और महापुरुषों के एकत्व के विचारों के परे कहां निकल गए? इंडिजिनियस पीपल्स की अवधारणा सहित ये मनगढ़ंत बातें क्या जनजातियों के राष्ट्रीय मूल्यों, स्वतंत्रता हेतु दिये गये बलिदानों की संस्कृति की अनवरत श्रंृखला के गौरव के अनुकूल है? यह हमारा राष्टीय कर्तव्य है कि हम हमारे गणराज्य के यू. एन. में रखे गये मत दिनांक 13 सितम्बर, 2007 के अनुरूप ही चिंतन व कार्यव्यवहार रखें।
जाने कैसी हवा चली और भारतवर्ष में भोला भाला जनजाति समाज एक भेड़ चाल का हिस्सा बनकर मूलनिवासियों के पतन ऐतिहासिक दिन 9 अगस्त को, विश्व मूलनिवासी दिवस मनाने लगे; जबकि यह अमेरिकी मूल निवासियों के नरसंहार का दिन है। इस दिन पवहाटन युद्ध में पांच मूलनिवासी कबीलों के नष्ट होने का दिवस जिसे औपनिवेशिक शक्तियों ने बड़ी चतुराई से संयुक्त राष्ट्र संघ के मंचों का उपयोग करते हुए सजावटी तौर पर प्रस्तुत किया है। यह सजावटी दिवस भारतीय संप्रभुता, भारतीय गौरवशाली इतिहास और जनजाति समाज के स्वतंत्रता सैनानियों/नायकों द्वारा औपनिवेशिक शक्तियों के विरुकिये गये अपने संघर्ष और बलिदानों की सच्ची श्रद्धांजलि नहीं हो सकता। हमारा प्रश्न हमारे पूर्वजों के प्रति प्रतिबद्धता और राष्ट्रीय मूल्यों में आस्था का ही रहा है व इसी के लिए हम नतमस्तक होते हैं। साथ ही साथ विश्व समाज में अमेरिकी आदिवासियों के समुदायों को नष्ट करने वाले विदेशी तत्वों के विरुद्ध ही होना चाहिए, क्योंकि 9 अगस्त को हर वर्ष कई हजार मूलनिवासी संयुक्त राष्ट्र के मुख्यालय के बाहर अपने पुरखों के पक्ष में खडे होकर 9 अगस्त, 1610 के क्रुर युद्ध की रीति, नीति व गति के विरोध में आंदोलन करते हैं, और तो फिर हम संवेदनशील, चिंतनशील व विवेकशील मानस वाले होकर भी 9 अगस्त को उत्सव कैसे बना सकते हैं?