जीवन परिचय
- तमिलनाडु के श्री पेरुम्बदूर कस्बे में विक्रम संवत 1074 को रामानुजाचार्य का जन्म हुआ।पिता जी केशवाचार्य व माता जी का नाम कान्तिमती थी। बचपन से ही रामानुजाचार्य की बुद्धि अत्यंत विलक्षण थी। 15 वर्ष की अवस्था में ही उन्होंने सभी शास्त्रों का गहन अध्ययन कर लिया था।
- 16 वर्ष की आयु में इनका विवाह रक्षम्बाके साथ हुआ। 23 वर्ष की आयु में गृहस्थ आश्रम त्यागकर श्रीरंगम के यदिराज संन्यासी से संन्यास की दीक्षा ली।
- श्री रामानुजाचार्य अपने काल के अत्यंत विद्वान, साहसी तथा सामाजिक दृष्टिकोण से उदार धार्मिक पथ प्रदर्शक थे।प्रख्यात लेखक हूपर ने भक्ति की चर्चा करते हुए कहा कि श्री रामानुजाचार्य के पूर्व आलवारों ने भक्ति की सुंदर भूमि तैयार की थी, जिस पर रामानुज ने भक्ति का प्रसार किया।
श्री रामानुजाचार्य और सामाजिक समरसता
- श्री रामानुजाचार्य ने हिन्दू समाज के पिछड़े वर्ग की पीड़ा और उपेक्षा को ह्रदयसे अनुभव किया। उस समय की प्रचलित सामाजिक एवं धार्मिक अनुष्ठान पद्धतियों में यथा संभव सुधार तथा नयी अनुष्ठान पद्धतियों की सृष्टि उन सभी लोगों के लिए की जीने लिए उस काल में जरुरी थी
- ब्राह्मण से लेकर चांडाल तक सभी जात-वर्गों के लिए सर्वोच्च आध्यत्मिक उपासना के द्वार, लोगों की आलोचना के बावजूद उन्होंने खोल दिए।इस कार्य के लिए उनको स्थान-स्थान पर भारी विरोध का सामना करना पड़ा, किन्तु न व डरे, न झिझके और न ही रुके
- श्री रामानुजाचार्य, सामाजिक दृष्टि से वर्णव्यवस्था के अन्दर किसी भी प्रकार के भेदभाव को स्वीकार नहीं करते थे।उनके अनेक शिष्य निम्न कहि जाने वाली जातियों से थे। भगवान की रथयात्रा के अवसर पर तथाकथित निम्न जातियोँ वाले ही रथ पहले खींचते थे। वही परम्परा आज भी चली आ रही है।
- उन्होंने वैष्णव धर्म के प्रचार के लिए पूरे देश का भ्रमण किया
- उन्होंने शुद्र गुरुओं का शिष्यत्व स्वीकार किया तथा चांडाल के हाथ से भोजन करने में भी श्री रामानुजाचार्य ने कभी संकोच नही किया
- श्री रामानुजाचार्य वृद्धावस्थामें स्नान करने को जाते समय दो ब्राह्मण के कन्धों पर हाथ रखकर जाते थे और जब स्नान कर वापस आते थे तब दो चर्मकारों के कन्धों का सहारा लेकर आते थे| लोगों ने जब इस पर आपत्ति की तो उन्होंने कहा – अरे ! मन की कलुषता को समाप्त करो’ उनका मानना था कि:
न जाति: कारणं लोके गुणा: कल्याणहेतव :
अर्थात जाति नहीं, वरन गुण ही कल्याण का कारण है |
- श्री रामानुजाचार्य ने श्री रंगपट्टम के उत्तर में मेलुकोट (दक्षिण बद्रिकाश्रम) नामक स्थान तिरूनारायण पेरूमाल वैष्णव मंदिर के द्वार पंचमों (शूद्रों से भी दूर कहे जाने वाले लोगों)के लिए खोल दिए थे। वे कहते हैं की क्षुद्र, निराश्रय मानव भी अपनी भक्ति, समर्पण तथा ज्ञान के सहारे ईश्वर को प्राप्त कर लेता है।
- इस व्यापक भावना ने सामाजिक सद्भाव तथा सहिष्णुताको जन्म दिया और वर्ण, जाति के भेदभाव से दूर आदर्श समाज व्यवस्था निर्माण करने का प्रयास किए
श्री रामानुजाचार्य एवं एकता और अखंडता
- उन्होंनेरामेश्वरम से लेकर बद्रीनाथ तक कि यात्रा की। आलवार भक्तों के तीर्थस्थानों की यात्रा व उत्तर भारत की यात्रा में काशी, अयोध्या, बद्रीनाथ, कश्मीर, जगन्नाथपुरी, द्वारिका आदि तीर्थस्थलों पर अपने आध्यात्मिक तथा सामाजिक विचारों को लेकर गए।
- श्री रामानुजाचार्य ने लोकजागरण का आधार भक्ति को ही मान्य किया और भक्ति के प्रचार-प्रसार के लिए व्यापक प्रयास किया।ज्ञान और भक्ति की गंगा बहाते हुए हिन्दू संस्कृति का पुनरूत्थान तथा सामाजिक जागरण का महान कार्य किया
श्रीरामानुजाचार्य द्वारा रचित ग्रन्थ, भाष्य
- मूल ग्रन्थ :ब्रह्मसूत्र पर भाष्य ‘श्रीभाष्य’ एवं ‘वेदार्थ संग्रह’।
- गुरु की इच्छानुसार रामानुज ने उनसे तीन काम करने का संकल्प लिया था- ब्रह्मसूत्र, विष्णु सहस्रनाम और दिव्य प्रबंधनम की टीका लिखना।अपने शिष्य ‘कुरंत्तालवार’ को लेकर वे श्री नगर गए तथा वापस श्री रंगम आकर श्रीभाष्य लिखने लगे।
- उन्होंने वेदांत दीप, वेदांत सार, वेदार्थ संग्रह, गीता भाष्य, नित्य ग्रन्थ तथा गद्य त्रयम (शरणागति गद्य, श्री रंगम गद्य, श्री बैकुंठ गद्य) की रचना की।
- विशिष्टाद्वैत दर्शन: रामनुजाचार्य के दर्शन में सत्ता या परमसत् के सम्बन्ध में तीन स्तर माने गए हैं- ब्रह्म अर्थात ईश्वर, चित् अर्थात आत्म, तथा अचित अर्थात प्रकृति।
- रामानुजजी के समय में वेद शास्त्र तथा अन्य धार्मिक ग्रन्थों का अध्ययन तथा अध्यापन सभी जाति-वर्णों के लोगों के लिए सुलभ हो गया था।
- सामाजिक जागरण का महान कार्य करते हुए रामानुजाचार्य 120 वर्ष की आयु में ब्रह्मलीन हुए
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